"मौसम का हाल" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक)
Sunday, January 13, 2013
मित्रों! आज ही के दिन
दो वर्ष पहले यह रचनाएँ लिखी थी!
इन दो रचनाओं को अपना स्वर दिया है मेरी मुँहबोली भतीजी
श्रीमती अर्चना चाव जी ने!
मौसम का हाल
कुहरे और सूरज
में,जमकर हुई लड़ाई।
जीत गया कुहरा, सूरज ने मुँहकी खाई।।
ज्यों ही सूरज
अपनी कुछ किरणें चमकाता,
लेकिन कुहरा इन
किरणों को ढकता जाता,
बासन्ती मौसम में
सर्दी ने ली अँगड़ाई।
जीत गया कुहरा, सूरज ने मुँहकी खाई।।
साँप-नेवले के
जैसा ही युद्ध हो रहा,
कभी सूर्य और कभी
कुहासा क्रुद्ध हो रहा,
निर्धन की ठिठुरन
से होती हाड़-कँपाई।
जीत गया कुहरा, सूरज ने मुँहकी खाई।।
कुछ तो चले गये
दुनिया से, कुछ हैं जाने वाले,
ऊनी वस्त्र कहाँ
से लायें, जिनको खाने के लाले,
सुरसा के मुँह सी
बढ़ती ही जाती है मँहगाई।
जीत गया कुहरा, सूरज ने मुँहकी खाई।।
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और दो दिनों में ही प्रकृति कितनी बदल गई!
कायदे से धूप अब खिलने लगी है।
लेखनी को ऊर्जा मिलने लगी है।।
दे रहा मधुमास दस्तक, शीत भी
जाने लगा,
भ्रमर उपवन में मधुर संगीत भी गाने लगा,
चटककर कलियाँ सभी खिलने लगी हैं।
लेखनी को ऊर्जा मिलने लगी है।।
कल तलक कुहरा घना था, आज बादल
छा गये,
सींचने आँचल धरा का, धुंध
धोने आ गये,
पादपों पर हरितिमा खिलने लगी है।
लेखनी को ऊर्जा मिलने लगी है।।
सब पुरातन पात पेड़ों से, स्वयं
झड़ने लगे हैं,
बीनकर तिनके परिन्दे, नीड़ को
गढ़ने लगे हैं,
अब मुहब्बत चाक-ए-दिल सिलने लगी है।
लेखनी को ऊर्जा मिलने लगी है।।
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