"दोहे-जीवन देती धूप" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
Sunday, February 23, 2014
तेज घटा जब सूर्य का, हुई लुप्त सब धूप।
वृद्धावस्था में कहाँ, यौवन जैसा रूप।।
बिना धूप के किसी का, निखरा नहीं स्वरूप।
जड़, जंगल और जीव को, जीवन देती धूप।।
सुर, नर, मुनि के ज्ञान की, जब ढल जाती धूप।
छत्र-सिंहासन के बिना, रंक कहाते भूप।।
बिना धूप के खेत में, फसल नहीं उग पाय।
शीत, ग्रीष्म, वर्षाऋतु, भुवनभास्कर लाय।।
शैल शिखर उत्तुंग पर, जब पड़ती है धूप।
हिमजल ले सरिता बहें, धर गंगा का रूप।।
नष्ट करे दुर्गन्ध को, शीलन देय हटाय।
पूर्व दिशा के द्वार पर, रोग कभी ना आय।।
खग-मृग, कोयल-काग को, सुख देती है धूप।
उपवन और बसन्त का, यह सवाँरती रूप।।