"दोहे-छंदहीन काव्य" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
Monday, May 5, 2014
लुप्त हुआ है काव्य का, नभ में सूरज आज।
बिनाछन्द रचना रचें, ज्यादातर कविराज।१।
जिसमें हो कुछ गेयता, काव्य उसी का नाम।
रबड़छंद का काव्य में, बोलो क्या है काम।२।
अनुच्छेद में बाँटिए, कैसा भी आलेख।
छंदहीन इस काव्य का, रूप लीजिए देख।३।
चार लाइनों में मिलें, टिप्पणियाँ चालीस।
बिनाछंद के शान्त हों, मन की सारी टीस।४।
बिन मर्यादा यश मिले, गति-यति का क्या काम।
गद्यगीत को मिल गया, कविता का आयाम।५।
अपना माथा पीटता, दोहाकार मयंक।
गंगा में मिश्रित हुई, तालाबों की पंक।६।
कथा और सत्संग में, कम ही आते लोग।
यही सोचकर हृदय का, कम हो जाता रोग।७।
गीत-ग़ज़ल में चल पड़ी, फिकरेबाजी आज।
कालजयी रचना कहाँ, पाये आज समाज।८।
देकर सत्साहित्य को, किया धरा को धन्य।
तुलसी, सूर-कबीर से, हुए न कोई अन्य।९।
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