"संविदा कर्मियों का दर्द" @गरिमा लखनवी
Saturday, August 27, 2022
संविदा कर्मियों का दर्द @गरिमा लखनवी -- कोई क्यों नहीं समझता दर्द हमारा हम भी इंसान हैं योगदान भी है हमारा -- सरकारी हो या निजी कैसा भी हो दफ्तर हम काम कर रहे बिना थक कर. -- परमानेंट मौज ले रहे, काम अपना थोप कर संविदा कर्मी पिस रहे परमानेंट की धौंस पर -- मुंह खोलना भी लाजिम नहीं फैसला हो जाता तुरंत कभी घट जाती सैलरी या नौकरी भी जाती रही -- कौन समझेगा दर्द हमारा अधिकारी मस्त संविदा कर्मी मिल गया सस्ते में मारा -- हड़ताल की करो बात तो मिल जाता है लॉलीपॉप कि जल्द ही करते हैं कुछ पर होता कुछ है नहीं संविदा कर्मी घुट घुट कर जी रहा यूं ही -- सच बात तो यह है दुगना काम कर भी कुछ हासिल नहीं -- गर संविदा कर्मी ना हो तो ना चल सकता कोई ऑफिस हो जाएगी बहुत ही मुश्किल जो चले गए ये छोड़कर ऑफिस।। -- |
7 comments:
बहुत सार्थक और सामयिक रचना।
जी नमस्ते ,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार(२९-०८ -२०२२ ) को 'जो तुम दर्द दोगे'(चर्चा अंक -४५३६) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
सार्थक और सामयिक
सुंदर प्रस्तुति
हमें तो लगता है संविदा कर्मी आईएएस ऑफिसर्स पर आउटसोर्स कर्मी विभागीय ऑफिसर्स के सोच की उपज है। पहले क्या संविदा कर्मियों का दर्द कम था जो आउटसोर्स लेकर आ गए। दोनों को रेगुलर न करना पड़े यही सरकारी सोच सुस्पष्ट लगती है।
अपनी आवाज़ उठाना और मामले को सब के सामने लाना ,सहयोग लेना ज़रूरी है
उपयोगी रचना
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