"लीची होती बहुत रसीली" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
Saturday, May 25, 2013
हरी, लाल और पीली-पीली!
लीची होती बहुत रसीली!!
गायब बाजारों से केले।
सजे हुए लीची के ठेले।।
आम और लीची का उदगम।
मनभावन दोनों का संगम।।
लीची के गुच्छे हैं सुन्दर।
मीठा रस लीची के अन्दर।।
गुच्छा प्राची के मन भाया!
उसने उसको झट कब्जाया!!
लीची को पकड़ा, दिखलाया!
भइया को उसने ललचाया!!
प्रांजल के भी मन में आया!
सोचा इसको जाए खाया!!
गरमी का मौसम आया है!
लीची के गुच्छे लाया है!!
दोनों ने गुच्छे लहराए!
लीची के गुच्छे मन भाए!!
|