ग़ज़ल "जमाखोरों का वतन में राज आया है" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
Sunday, November 22, 2015
जलाया खून है अपना, पसीना भी बहाया है।
कृषक ने अन्न खेतों में, परिश्रम से कमाया है।।
सुलगते जिसके दम से हैं, घरों में शान से चूल्हे,
उसी पालक को, साहूकार ने भिक्षुक बनाया है।
मुखौटा पहनकर बैठे हैं, ढोंगी आज आसन पर,
जिन्होंने कंकरीटों का, यहाँ जंगल उगाया है।
कहें अब दास्तां किससे, अमानत में ख़यानत है,
जमाखोरों का अब अपने, वतन में राज आया है।
पहन खादी की केंचुलिया, छिपाया “रूप” को अपने,
रिज़क इस देश का खाकर, विदेशी गान गाया है।
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