ग़ज़ल "लोग मासूम कलियाँ मसलने लगे" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
Friday, March 11, 2016
आदमी के इरादे बदलने लगे
दीन-ईमान पल-पल फिसलने लगे
चल पड़ी गर्म अब तो हवाएँ यहाँ
सभ्यता के हिमालय पिघलने लगे
फूल कैसे खिलेंगे चमन में भला,
लोग मासूम कलियाँ मसलने लगे।
अब तो पूरब में सूरज लगा डूबने
पश्चिमी रंग में लोग ढलने लगे
देख उजले लिबासों में मैले मगर
शान्त सागर के आँसू निकलने लगे
दूध माँ का लजाने लगे पुत्र अब
मूँग माता के सीने पे दलने लगे
नेक सीरत पे अब कौन होगा फिदा
“रूप” को देखकर दिल मचलने लगे
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