"जिन्दादिली का प्रमाण दो" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
Sunday, April 6, 2014
जिन्दा हो गर, तो जिन्दादिली का प्रमाण दो। मुर्दों की तरह, बुज-दिली के मत निशान दो।। स्वाधीनता का पाठ पढ़ाया है राम ने, क्यों गिड़िगिड़ा रहे हो शत्रुओं के सामने, अपमान करने वालों को हरगिज न मान दो। मुर्दों की तरह, बुज-दिली के मत निशान दो।। तन्द्रा में क्यों पड़े हो, हिन्द के निवासियों, सहने का वक्त अब नही, भारत के वासियों, सौदागरों की बात पर बिल्कुल न ध्यान दो। मुर्दों की तरह, बुज-दिली के मत निशान दो।। कश्मीर का भू-भाग दुश्मनों से छीन लो, कैलाश-मानसर को भी अपने अधीन लो, चीन-पाक को नही रज-कण का दान दो। मुर्दों की तरह, बुज-दिली के मत निशान दो।। |
3 comments:
ओजपूर्ण रचना...
वाह मयंक जी । बड़ा ओजस्वी गीत लिखा आप ने । बधाई लें ।यह एक
प्रयाणगीत भी लगता है जिस पर मार्च या प्रयाण किया जा सकता है ।
"जिन्दा है तू जिंदगी के गीत पर यकीन कर
अगर कहीं है स्वर्ग तो उतर लो जमीन पर"
.... कभी स्कूल के दिन यह गीत बड़े जोश-ओ- खरोश से गाकर बड़ा आनंद आता था आज आपके इस गीत को गुनगुनाकर मन को बहुत अच्छा लगा।..
देशप्रेम की हुंकार से भरी प्रस्तुति हेतु आभार!
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