"उड़कर परिन्दे आ गये" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
Thursday, November 21, 2013
जंगलों में जब दरिन्दे आ गये।
मेरे घर उड़कर परिन्दे आ गये।।
पूछते हैं वो दर-ओ-दीवार से,
हो गये महरूम सब क्यों प्यार से?
क्यों दिलों में भाव गन्दे आ गये?
मेरे घर उड़कर परिन्दे आ गये।।
हो गया क्यों बे-रहम भगवान है?
क्यारियों में पनपता शैतान है?
हबस के बहशी पुलिन्दे आ गये।
मेरे घर उड़कर परिन्दे आ गये।।
जुल्म की जो छाँव में हैं जी रहे,
जहर को अमृत समझकर पी रहे,
उनको भी कुछ दाँव-फन्दे आ गये।
मेरे घर उड़कर परिन्दे आ गये।।
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4 comments:
वाह बहुत खूब !
सुन्दर भाव-पूर्ण रचना । प्रवाह-पूर्ण-प्राञ्जल प्रस्तुति।
बहुत बढ़िया
शुभी प्रात:काल!सत्य-कथन !!मन की पीड़ा !!!
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