कविता:"सपना "
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*"सपना "*
दिल में तमना रखो,
एक बड़ा सपना सजाकर रखो |
दुनियां क्या कहती है,
इससे कोई फर्क नहीं पड़ता |
पर अपना सपना साकार करने की,
उम्मीद जगाकर रखो |
तुम कभ...
2 days ago
नव-वर्ष खड़ा द्वारे-द्वारे!
गधे चबाते हैं काजू,
महँगाई खाते बेचारे!!
काँपे माता काँपे बिटिया, भरपेट न जिनको भोजन है,
क्या सरोकार उनको इससे, क्या नूतन और पुरातन है,
सर्दी में फटे वसन फटे सारे!
नव-वर्ष खड़ा द्वारे-द्वारे!!
जो इठलाते हैं दौलत पर, वो खूब मनाते नया-साल,
जो करते श्रम का शीलभंग,वो खूब कमाते द्रव्य-माल,
वाणी में केवल हैं नारे!
नव-वर्ष खड़ा द्वारे-द्वारे!!
नव-वर्ष हमेशा आता है, सुख के निर्झर अब तक न बहे,
सम्पदा न लेती अंगड़ाई, कितने दारुण दुख-दर्द सहे,
मक्कारों के वारे-न्यारे!
नव-वर्ष खड़ा द्वारे-द्वारे!!
रोटी-रोजी के संकट में, नही गीत-प्रीत के भाते हैं,
कहने को अपने सारे हैं, पर झूठे रिश्ते-नाते हैं,
सब स्वप्न हो गये अंगारे!
नव-वर्ष खड़ा द्वारे-द्वारे!!
टूटा तन-मन भी टूटा है, अभिलाषाएँ ही जिन्दा हैं,
आयेगीं जीवन में बहार, यह सोच रहा कारिन्दा हैं,
कब चमकेंगें नभ में तारे!
नव-वर्ष खड़ा द्वारे-द्वारे!!
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आ गई हैं सर्दियाँ मस्ताइए।
बैठकर के धूप में सुस्ताइए।।
पर्वतों पर नगमगी चादर बिछी.
बर्फबारी देखने को जाइए।
बैठकर के धूप में सुस्ताइए।।
रोज दादा जी जलाते हैं अलाव,
गर्म पानी से हमेशा न्हाइए।
बैठकर के धूप में सुस्ताइए।।
रात लम्बी, दिन हुए छोटे बहुत,
अब रजाई तानकर सो जाइए।
बैठकर के धूप में सुस्ताइए।।
खूब खाओ सब हजम हो जाएगा,
शकरकन्दी भूनकर के खाइए।
बैठकर के धूप में सुस्ताइए।।
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जंगलों में जब दरिन्दे आ गये।
मेरे घर उड़कर परिन्दे आ गये।।
पूछते हैं वो दर-ओ-दीवार से,
हो गये महरूम सब क्यों प्यार से?
क्यों दिलों में भाव गन्दे आ गये?
मेरे घर उड़कर परिन्दे आ गये।।
हो गया क्यों बे-रहम भगवान है?
क्यारियों में पनपता शैतान है?
हबस के बहशी पुलिन्दे आ गये।
मेरे घर उड़कर परिन्दे आ गये।।
जुल्म की जो छाँव में हैं जी रहे,
जहर को अमृत समझकर पी रहे,
उनको भी कुछ दाँव-फन्दे आ गये।
मेरे घर उड़कर परिन्दे आ गये।।
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"गिलहरी"
बैठ मजे से मेरी छत पर,दाना-दुनका खाती हो!
उछल-कूद करती रहती हो,
सबके मन को भाती हो!!
तुमको पास बुलाने को,
मैं मूँगफली दिखलाता हूँ,
कट्टो-कट्टो कहकर तुमको,
जब आवाज लगाता हूँ,
कुट-कुट करती हुई तभी तुम,
जल्दी से आ जाती हो!
उछल-कूद करती रहती हो,
सबके मन को भाती हो!!
नाम गिलहरी, बहुत छरहरी, आँखों में चंचलता है, अंग मर्मरी, रंग सुनहरी, मन में भरी चपलता है, हाथों में सामग्री लेकर, बड़े चाव से खाती हो!
उछल-कूद करती रहती हो,
सबके मन को भाती हो!!
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मेरे गीत को सुनिए-
अर्चना चावजी के मधुर स्वर में!
"झंझावात बहुत फैले हैं" सुख के बादल कभी न बरसे,
दुख-सन्ताप बहुत झेले हैं!
जीवन की आपाधापी में,
झंझावात बहुत फैले हैं!!
अनजाने से अपने लगते,
बेगाने से सपने लगते,
जिनको पाक-साफ समझा था, उनके ही अन्तस् मैले हैं!
जीवन की आपाधापी में,
झंझावात बहुत फैले हैं!!
बन्धक आजादी खादी में,
संसद शामिल बर्बादी में,
बलिदानों की बलिवेदी पर,
लगते कहीं नही मेले हैं!
जीवन की आपाधापी में,
झंझावात बहुत फैले हैं!!
ज्ञानी है मूरख से हारा,
दूषित है गंगा की धारा,
टिम-टिम करते गुरू गगन में,
चाँद बने बैठे चेले हैं!
जीवन की आपाधापी में,
झंझावात बहुत फैले हैं!!
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हरी, लाल और पीली-पीली!
लीची होती बहुत रसीली!!
गायब बाजारों से केले।
सजे हुए लीची के ठेले।।
आम और लीची का उदगम।
मनभावन दोनों का संगम।।
लीची के गुच्छे हैं सुन्दर।
मीठा रस लीची के अन्दर।।
गुच्छा प्राची के मन भाया!
उसने उसको झट कब्जाया!!
लीची को पकड़ा, दिखलाया!
भइया को उसने ललचाया!!
प्रांजल के भी मन में आया!
सोचा इसको जाए खाया!!
गरमी का मौसम आया है!
लीची के गुच्छे लाया है!!
दोनों ने गुच्छे लहराए!
लीची के गुच्छे मन भाए!!
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गीत पुराने, नये तराने अच्छे लगते हैं। हमको अब भी लोग पुराने अच्छे लगते हैं। जब भी मन ने आँखे खोली, उनका दर्शन पाया, देखी जब-जब सूरत भोली, तब-तब मन हर्षाया, स्वप्न सुहाने, सुर पहचाने अच्छे लगते हैं, मीत पुराने, नये-जमाने अच्छे लगते हैं। रात-चाँदनी, हँसता-चन्दा, तारे बहुत रुलाते, किसी पुराने साथी की वो, बरबस याद दिलाते, उनके गाने, नये ठिकाने अच्छे लगते हैं। मीत पुराने, नये-जमाने अच्छे लगते हैं।। घाटी-पर्वत, झरने झर-झर, अभिनव राग सुनाते, पवन-बसन्ती, रिम-झिम बून्दें, मन में आग लगाते, देश अजाने, लोग बिराने अच्छे लगते हैं। मीत पुराने, नये-जमाने अच्छे लगते हैं।। |
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मित्रों! आज ही के दिन
दो वर्ष पहले यह रचनाएँ लिखी थी!
इन दो रचनाओं को अपना स्वर दिया है मेरी मुँहबोली भतीजी
श्रीमती अर्चना चाव जी ने!
मौसम का हाल
कुहरे और सूरज
में,जमकर हुई लड़ाई।
जीत गया कुहरा, सूरज ने मुँहकी खाई।।
ज्यों ही सूरज
अपनी कुछ किरणें चमकाता,
लेकिन कुहरा इन
किरणों को ढकता जाता,
बासन्ती मौसम में
सर्दी ने ली अँगड़ाई।
जीत गया कुहरा, सूरज ने मुँहकी खाई।।
साँप-नेवले के
जैसा ही युद्ध हो रहा,
कभी सूर्य और कभी
कुहासा क्रुद्ध हो रहा,
निर्धन की ठिठुरन
से होती हाड़-कँपाई।
जीत गया कुहरा, सूरज ने मुँहकी खाई।।
कुछ तो चले गये
दुनिया से, कुछ हैं जाने वाले,
ऊनी वस्त्र कहाँ
से लायें, जिनको खाने के लाले,
सुरसा के मुँह सी
बढ़ती ही जाती है मँहगाई।
जीत गया कुहरा, सूरज ने मुँहकी खाई।।
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और दो दिनों में ही प्रकृति कितनी बदल गई!
कायदे से धूप अब खिलने लगी है।
लेखनी को ऊर्जा मिलने लगी है।।
दे रहा मधुमास दस्तक, शीत भी
जाने लगा,
भ्रमर उपवन में मधुर संगीत भी गाने लगा,
चटककर कलियाँ सभी खिलने लगी हैं।
लेखनी को ऊर्जा मिलने लगी है।।
कल तलक कुहरा घना था, आज बादल
छा गये,
सींचने आँचल धरा का, धुंध
धोने आ गये,
पादपों पर हरितिमा खिलने लगी है।
लेखनी को ऊर्जा मिलने लगी है।।
सब पुरातन पात पेड़ों से, स्वयं
झड़ने लगे हैं,
बीनकर तिनके परिन्दे, नीड़ को
गढ़ने लगे हैं,
अब मुहब्बत चाक-ए-दिल सिलने लगी है।
लेखनी को ऊर्जा मिलने लगी है।।
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